बुधवार, 25 मई 2016

मुझे याद  है कोई  किस्सा ----- पुराना
क्योंकि यादों में बसता है गुजरा जमाना
कभी जिद पे रोना , कभी खिलखिलाना
सब पाके पल   में     ही सब भूल जाना
कभी बेबजह ------  यू  तेरा मुस्कुराना
मुझे याद  है कोई  किस्सा ----- पुराना।।

कभी रास्तों पर  गिरना , सम्भलना
कभी गलियों में  इठला  के चलना
गर्मी  की  धूपों  में   शामों  शहर
होता था जहाँ पर तपन का कहर
पेड़ों की छावों  में हम खेलते थे
कभी  झगड़ा लड़ाई कभी रूठ जाना
कभी   जिद पे रहना कभी मान जाना
मुझे याद  है कोई  किस्सा ----- पुराना।।



बुधवार, 4 मई 2016

कितने आश्चर्य की बात है

मकान की दीवारें खड़ी करने में कितना वक्त लगता है ,कितनी मशक्क्त लगती है
और दूसरी तरफ
दोस्तों और रिस्तेदारों के बीच जरा सी  गलतफहमी  से दीवारें खड़ी हो जाती हैं

सोमवार, 2 मई 2016

दस पैसे में  संतरे की गोली
बीस पैसे में चॉकलेट
पचास पैसे में कुल्फी
एक रूपये में समोसे
एक रूपये में तीन फुल्की (पानी पतासे )

ये रेट हमारे स्कूल के टाइम के हैं

और आज

एक रूपये से कम में कुछ नहीं मिलता और   और आजकल के  छात्र  दस  , बीस पैसे तो जानते भी नहीं हैं
सिर्फ किताबों में ही  पढ़ते हैं।

पहले  पचास रुपए की पॉकेट मनी  महीने भर चलती थी और आज  हजार रूपये भी कम पड़ जाते हैं 
आजकल चाँवल और दाल का मिलन मुश्किल हो गया है
क्योकि दाल फिर आसमान पर है


शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

मेरे दादा जी ( स्व. श्री मोतीराम खरे ) जिन्हे हमने बचपन में ही खो दिया था , मगर  उनके किस्से हमने सुने हैं ,
वो नियम  कायदे कानून में बिलकुल "विरासत" फिल्म के अनिल कपूर के जैसे थे , सफ़ेद धोती सफ़ेद कुर्ता
नीली जैकेट  और कंधे पर सफ़ेद गमछा  उनका हमेशा  यही परिधान था।
गॉव में पंचो के मुखिया भी थे ,आसपास के दस गॉंवों में उनका नाम प्रसिद्ध था ,मान सम्मान धन दौलत ,जमीं
जायदाद में सबसे आगे ,गॉव के आधे हिस्से में तो हमारे दादा जी ने मकान बना रखे थे  मगर पूरी ईमानदारी से
कंही भी कोई छल कपट  नहीं था ,वो सबसे ज्यादा  अपनी ईमानदारी के लिये ही प्रसिद्ध थे।
आस पास के दस गॉव में भी कोई गलत काम करने से डरता था ,गलत लोगों के प्रति इतना डर भी बना रखा था

                  जहाँ तक मैंने सुना है  ये सारा बैभव  उन्हें विरासत में नहीं मिला था  उन्होंने सब अपनी मेहनत से बनाया था , रुतवा इतना था कि  जो बोल दिया मतलब  हो गया , बात कोई टाल नहीं सकता था , उनकी बात
पत्थर की लकीर बन जाती थी।
                   जब तक वो थे , हमारे घर में तो  ठीक  आसपास के गॉवों में लोग  गलत काम करने से घबराते थे
कि  अगर  दादाजी को पता चल गया तो हमारी खैर नहीं।
दादाजी के जाने के बाद  यही रुतवा मेरे पिताजी स्व. श्री लखन लाल खरे  ने भी बना कर रक्खा था , लेकिन
वो सारा बैभव  अब तीन हिस्सों में  बट चुका था , मेरे दो चाचा( श्री दीनदयाल खरे  एवं राजू खरे ) और मेरे  पिताजी  के बीच  कभी  कोई मतभेद नहीं रहा , लेकिन  परिवार जब तीन टुकड़ों   में टूटता है तो समाज की
नजर में वो प्रभाव  भी कम हो जाता है।
                  समय अपनी गति से चलता रहा मगर  मेरे पिताजी के  जीवन में कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी  कि
अपने  हिस्से  की सारी  विरासत  मिटानी पड़ी।
                  समाज और  गॉव वालों को इस बात का अफ़सोस होता है पर मुझे नहीं, क्योंकि
विरासत जरूर एक दिन ख़त्म हो  सकती है पर  हुनर नहीं ,और हुनर से एक नई शुरुआत की जा सकती है।


गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

काश  हमारे बचपन में  स्मार्टफोन  होते
तो हम वो  हसीन पल कैप्चर  कर  पाते

बचपन में अक्सर  गॉव के सारे बच्चे  कभी इमली के पेड़ के नीचे , कभी आम के पेड़ के नीचे
गर्मियों की छुट्टियों में खेला करते थे , और मैं सभी बच्चों का  लीडर हुआ करता था।
असल जिंदगी तो  बचपन की ही होती है  न कोई फ़िक्र न कोई चिंता  बस अपनी धुन में मस्त मगन
और अगर  बचपन  पेड़ों की छाँव  बाग बगीचों और नदियों के किनारे  गुजरा हो तो  साहब  यादें  तो
सुनहरी  होंगी , लेकिन अफ़सोस  अब  शहरों से  नाता  मेरा है , जहाँ अब वो हसीन पल नसीब नहीं  हैं